जोड़ के ईंट और गारा
बना लिया अपना संसार
अपने हिस्से की धूप,
अपने हिस्से की हवा-पानी
कर लिया जग से बँटवारा।
यहीं पर बॉंध लिया दु:ख सुख को
संजो लिया रौशनी और अंधियारा
ईकाई समाज की ही है
पर सामाजिक नहीं ये बँटवारा।
बाहर बहुत क्रोध है
यहॉं नहीं कोई अवरोध है,
भ्रम हो तो वही सही
पर सुकून है यहीं,
मन यहीं अबोध है।
यदा कदा बाहर सोपान पर
अभाग्य सर पीट जाता है,
दरवाज़े की कुंडी कभी क्लेश
खटखटा कर भाग जाता है।
मगर जब कोई अपने बोझ को
यहीं पटक निकल जाता है -
वो त्रासदी, मन विचलित कर जाती है
इस चारदीवारी के उद्देश्य को
बिल्कुल खोखली कर जाती है।