Saturday, September 23, 2017
पुञ्ज सारथी
जानते हो रुधिर उबल कर
व्यर्थ जब बह जाता है,
एक युग, तिमिर को ही मीत समझ
अंधियारे में गिर जाता है।
अग्रणी कपट, लालच का जाल बिछा
क्रांति-परचम कितने लहरा गए,
गोत्र, धर्म की बीन बजा
भारत को ही बरगला गए।
ज्ञान किताबी, विचार मतलबी, विश्वास-अंध को -
समाज-भावी कब क्षमा कर पाया है।
उठो अकर्मण्यों! कब तक कोसोगे तक़दीर-मुक़द्दर
तुम्हारे भाग्य में ये किसी ने नहीं लिखवाया है।
कोई नहीं कहता, होगी सुगम-सरल डगर
यही ध्येय है, न समझ कुपथ।
कर में ही तेरी है नियति
कर्म को ही अपना देव समझ।
यशगान गगन-भेदी हैं उठते
नर नारायण कहलाता है
समय भी उसकी पूजा करता,
किरण खींच जो लाता है।
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