उसकी आंखों में मैं चोर देखता हूँ,
और दाढ़ी में तिनका -
खुल कर हस्ते हुए भी,
कनखियों से झांकता है।
सवाल सीधे नहीं कभी,
बड़े पेचीदे करता है।
घुमा कर जलेबियों सी,
बातें भी तो चाशनी में डूबो कर करता है।
नज़रें जमाना कहाँ सीख पायेगा वो,
आँखों से जब वैसे करतब करता है।
क्या नापता है, जाने क्या तौलता है -
शब्दों के वज़न?
फिर कांट-छांट भी तो मन में ही करता है।
सवालों के जवाब की जगह,
क्या मंद मुस्कान बिखेरता है।
पीली दाल में तैरता हुआ,
कुछ काला है सिर्फ, कि है पूरा छौंका?
उसकी आँखों में मैं चोर देखता हूँ
और दाढ़ी में तिनका।
Saturday, September 23, 2017
पुञ्ज सारथी
जानते हो रुधिर उबल कर
व्यर्थ जब बह जाता है,
एक युग, तिमिर को ही मीत समझ
अंधियारे में गिर जाता है।
अग्रणी कपट, लालच का जाल बिछा
क्रांति-परचम कितने लहरा गए,
गोत्र, धर्म की बीन बजा
भारत को ही बरगला गए।
ज्ञान किताबी, विचार मतलबी, विश्वास-अंध को -
समाज-भावी कब क्षमा कर पाया है।
उठो अकर्मण्यों! कब तक कोसोगे तक़दीर-मुक़द्दर
तुम्हारे भाग्य में ये किसी ने नहीं लिखवाया है।
कोई नहीं कहता, होगी सुगम-सरल डगर
यही ध्येय है, न समझ कुपथ।
कर में ही तेरी है नियति
कर्म को ही अपना देव समझ।
यशगान गगन-भेदी हैं उठते
नर नारायण कहलाता है
समय भी उसकी पूजा करता,
किरण खींच जो लाता है।
Monday, September 18, 2017
भाषाभारत - https://www.bhashabharat.com/
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे
गुल्ज़ार साहब की उपरोक्त पंक्तियॉं, ज़िन्दगी की पेचीदा सवालों को जैसे बिल्कुल सरल बना देती हैं। शब्दों के जादूगर ने ये एक नज़रिया क्या ख़ूब पेश किया है। पर एक और नज़रिया जो इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से उजागर होने वाला है वो शायद उतना रंगीन न हो।
भारतवर्ष में मजदूरों की दुर्दशा पर कई अभिलेख मिल जाएंगे और उनकी आर्थिक बदहाली पर सामाजिक क्रान्ति की चर्चा भी उतनी ही संख्या में आपको मिल जाएंगे, पर इस दुर्दशा से निजात पाने के लिए कोई संघोष्ठी नहीं होती। इस समस्या के हल पर कोई विचार संध्या नहीं होती। इस वर्ष हम आज़ादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं और बड़ी बड़ी बातें जो ऐसे मौकों पर की जाती हैं की गयी हैं। सामाजिक क्रांति पर विश्वविद्यालयों में नारेबाज़ी हुई, लोगों की जमात सामाजिक तबके में सबसे नीची जाती के मोहल्लों में गयी, हो-हल्ला हुआ, चित्र खिंचवाए गए और फिर सब भूल कर लोग अपने ख्वाबगृह में वापस चले गए।
जुलाहों के वो मोहल्ले, जहाँ कुछ साल पहले तक लोग अपनी संकीर्ण जातिवाद से लैस होकर उनके हाथ से पानी पीने में संकोच करते थे (ये बात अलग है कि उनके बुने गए कपड़ों को खरीदने और बेचने में किसी को कोई संकोच नहीं होता था ), अब सामाजिक बदलाव की आस भी नहीं रखते हैं - सब कुछ, जैसा की आजतक होता आया है, भगवान पर छोड़ देते हैं । और ये एक बहुत बड़ा कारण है की भारत में आजतक सशस्त्र, हिंसक सामाजिक क्रांति नहीं हुई है (माओवादियों को समाज का हिस्सा मानना एक बड़ी गलती होगी, इसलिए उनकी गिनती यहाँ नहीं है) - भगवान का शुक्र है।
लेकिन आज के युग में सामाजिक क्रांति खोखली नारेबाजी नहीं है। इंटरनेट ने इस खोखलेपन में कीबोर्ड की टप-टपाहट से अगर सामाजिक नहीं तो वैचारिक क्रांति की नींव ज़रूर डाली है। और इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है भाषाभारत ने।
भागलपुर की ऐतिहासिक धरती ने कर्ण की दानवीरता देखी है, बिहुला का अपरिमित साहस देखा है, चंदो सौदागर का अनुपम रेशम कारोबार देखा है - और शायद एक बार फिर वक़्त आ गया है उसी स्वर्णिम रेशम कारोबारी युग को वापस लाने का। भागलपुर का तसर सिल्क विश्वविख्यात है और आज तक उसी पुराने व्यापारिक ढांचे के तहत बिकता रहा है। लेकिन भाषाभारत ने एक पहल की है जिससे आप ऑनलाइन तसर सिल्क से बने कपड़े मंगवा सकते हैं और इसका सीधा लाभ जुलाहों तक पहुंचेगा। बिचौलियों को इंटरनेट के सहारे बड़ी शालीनता से दरकिनार कर दिया गया है। ये वैचारिक क्रांति सामाज-सुधार के साथ साथ हथकरघा बुनकरों को उनको अपनी मेहनत का सही मेहनताना दिलवाएगा, इसी आस के साथ भाषाभारत को बहुत सारी शुभकामनायें।
Wednesday, September 13, 2017
अंजनेय
रंग पुता है पलकों पर
कि नक़ाब कस कर बाँधा है?
देखो इस भीड़ की भेड़ चाल
जिधर मोड़ा उधर का रुख करता है।
भूल के अपनी एकाकी
बेड़ी बाँध बस बढ़ना है,
लक्ष्य न ध्येय की कोई सोच
बस चलना है क्यूंकि चलना है।
कभी सोचा कि क्या पायेगा तू
पृथक अगर बढ़ जायेगा?
इन पगडंडियों पर तो कई चले
नए पथ प्रशस्त तू कर जायेगा।
ऋक्षराज यहाँ कोई नहीं
गुण तेरे कौन यहाँ बखान करे
सुशुप्त शक्तियों का कौन आवाहन करे,
रौद्र रुप खुद ही अब धरना है
अंजनेय खुद ही तुझे बनना है।
कि नक़ाब कस कर बाँधा है?
देखो इस भीड़ की भेड़ चाल
जिधर मोड़ा उधर का रुख करता है।
भूल के अपनी एकाकी
बेड़ी बाँध बस बढ़ना है,
लक्ष्य न ध्येय की कोई सोच
बस चलना है क्यूंकि चलना है।
कभी सोचा कि क्या पायेगा तू
पृथक अगर बढ़ जायेगा?
इन पगडंडियों पर तो कई चले
नए पथ प्रशस्त तू कर जायेगा।
ऋक्षराज यहाँ कोई नहीं
गुण तेरे कौन यहाँ बखान करे
सुशुप्त शक्तियों का कौन आवाहन करे,
रौद्र रुप खुद ही अब धरना है
अंजनेय खुद ही तुझे बनना है।
Subscribe to:
Posts (Atom)
दिन
दिन बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...
-
यह दिन बाकी दिनों के जैसा नहीं था। आज कार या बाइक की जगह हमने ऑफिस जाने के लिए कैब लेने का फ़ैसला लिया था। तबियत कुछ ख़राब थी और गला घोटने व...
-
Sholay is not a movie, its a way of life...at least my life ;) Watching Sholay on the big screen (that too in 3D) was a complete e...
-
“Even we had a training and test before we joined and this test thing that they have started has made it a very serious affair” , Aman said...