Friday, July 21, 2017

कर्तव्य विमुख

खिड़की से आसमान ताक रहा था -
एक हल्का फुल्का सा बादल,
जैसे एक बहुत बड़े बादल से बने
रथ को खींच रहा था।

नैपथ्य में सुदूर सफ़ेद बादलों का एक बिखरा समूह था
शायद ऊपर से देख कर इठलाते हुए
मुस्कुरा रहा था।

ये छोटू लगा रहा
खींचता रहा,
और धरती पर नीचे उसका साया पड़ा -
छोटू का तो नहीं
लेकिन उस रथ का।

नीचे धरातल पर
घटा छा गयी,
मल्हार गए जाने लगे,
तपती धरती को जैसे चैन की साँस मिली।

आस में लगे उस कृषक के चेहरे पर
मुस्कान आ गयी।
कितना फरक है उस सुदूर
कर्तव्यविमुख उन बादलों में
और झुर्री पड़े इस चेहरे पर ! 

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दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...