Saturday, March 07, 2015

क्वथनांक

रख दो की अभी मशाल उठाने का वक़्त नहीं आया है
बूँदें टपकी नहीं हैं अभी, बस सिसकियों का ही उफान आया है।

हर गली कूचे, हर चौक चौबारे से जब तक
जलने की बू न आ जाए
बेमुरव्वत नज़रों में जब तक
ग्लानि, आक्रोश, पीड़ा न छा जाए
जज़्बाती विचारों में जब तक
होश हौसला न आ जाए,
बुझे पड़े रहने दो मशालों को
क्रोध पलने दो तब तक।

इंक़लाब सैलाब नहीं
थपेड़े चट्टानों के मोहताज नहीं
उफनकर उबलोगे तो बस फैल जाओगे
उष्ण संजोकर धधको तब तक।

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