भव्य समंदर-
विस्मित कर
समेटे कितने प्राणों को।
विकराल कोई, खूंखार कोई
तैयार निगलने सब कुछ को।
प्रीत भरा वो मीन बचाता
ख़ुद को उन जलचर से
रहे जो तैयार सदा
हर चीज़ लाल रंगाने को।
भय उसे जल से परे भी,
झिझक नहीं जिन्हें मौत का -
दे लालच जो रहे ताक में,
उसे धर दबोच चबाने को।
प्रयास करे कोई कितना भी,
रंग सागर का बदलने को,
लाल भी हो जाए विफ़ल,
यह परिवर्तन लाने को ।
बना समंदर क्यूंकि -
एक ही रंग में रह जाने को।
Monday, April 10, 2006
Monday, April 03, 2006
सेनापति
थक कर गिर जायेंगे सभी,
अंधकार आंखों में छा जाएगा,
मन अंग से पृथक होकर,
कहीं कोने में दुबक जाएगा।
आँखें मूँद लेंगे सभी,
डर, हर मन में घर बना -
और सशक्त हो जाएगा।
दिशाहीन - दिग्भ्रमित होकर
पथ बिना पग बढ़ जाएगा।
भय - अनिर्णय की ज़ंजीर तोड़कर,
किसी को आगे आना होगा,
तभी शब्द बाँध बह पायेगा,
दोष - आरोप के इस जाल को
उसी का बल क्षीण कर पायेगा।
उठो पार्थ !! गांडीव संभालो,
प्रत्युत्तर से तमस ढह जाएगा,
साहस तुम्हीं से मिलेगी सबको,
इतिहास तुम्हे स्वर्णिम कह जाएगा।
अंधकार आंखों में छा जाएगा,
मन अंग से पृथक होकर,
कहीं कोने में दुबक जाएगा।
आँखें मूँद लेंगे सभी,
डर, हर मन में घर बना -
और सशक्त हो जाएगा।
दिशाहीन - दिग्भ्रमित होकर
पथ बिना पग बढ़ जाएगा।
भय - अनिर्णय की ज़ंजीर तोड़कर,
किसी को आगे आना होगा,
तभी शब्द बाँध बह पायेगा,
दोष - आरोप के इस जाल को
उसी का बल क्षीण कर पायेगा।
उठो पार्थ !! गांडीव संभालो,
प्रत्युत्तर से तमस ढह जाएगा,
साहस तुम्हीं से मिलेगी सबको,
इतिहास तुम्हे स्वर्णिम कह जाएगा।
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