Wednesday, October 02, 2024

दिन

दिन 

बीत रहे हैं

गुज़र रहे हैं

फिसल रहे हैं

खिसक रहे हैं

लुढ़क रहे हैं

नहीं रुक रहे हैं।


हम

गिन रहे हैं

जोड़ रहे हैं

जोह रहे हैं

खो रहे हैं

आस

अब भी लगा रहे हैं।

चरित्र

कहीं छंदों का कहीं संगों का कहीं फूल बहार के खेलों का चट्टानों, झील समंदर का सुन्दर रंगीन उपवनों का ख़ुशबू बिखेरती सुगंध का, कभी रसीले पकवान...