हर रोज़ गुट नया बनता रहता
खेला होता आर-पार
माला जपो सोशल मीडिया पर
घड़ी-घड़ी पाओ नया अत्याचार!
खेला होता आर-पार
माला जपो सोशल मीडिया पर
घड़ी-घड़ी पाओ नया अत्याचार!
हर रोज़ नया नया रंग
कभी केसरिया
कभी लाल
गोता लगाकर सने रहो
लाओ नया भूचाल!
एक रोज़ रंग फ़क़ीरी का
एक रोज़ बादशाही अमीरी का
हर जिरह जंग जैसे
मसला घरेलू और करीबी का।
वो खेल का मैदान हो
या सियासत का आखेट
दो-दो हाथ और कोई करता
खाते हैं हम फरेब!
रोज़ बँट कर
गुट लेना है चुन
काम काज सब तख़्ता पर रखकर
माथा में भरो उधेड़बुन!
हो किसी की भी समस्या
भोजन सा जाए परोसा
लड़ाई-बहस के बाद भी
बने रहो मुँहझौंसा!
रहीमन कहकर गए
कर का मनका दे डारी
फिरा जो न मनका
तो पीछे पड़े कोतवारी!
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