मुझे वहाँ की सर्दी याद नहीं। शायद सर्दी में हुई एकाध अप्रिय घटनाओं ने मन खट्टा कर दिया हो। हॉं गर्मी की दुपहरियॉं बड़े अच्छे से याद हैं।
सभी भाई बहन कभी ओसरा, कभी किसी कमरे में बिछे हुए गद्दे पर हीही, खीं खीं करते हुए और बीच बीच में किसी बड़े के “ऐऽऽऽऽ”, “ह्मममममममम” बहुत स्पष्ट याद हैं।
पकते हुए मसूर दाल की महक उन दुपहरियों में ख़ुशबू घोल देती है। यादों के साथ वहॉं के तो दाल, भात, भुजिया का स्वाद भी ज़बान पर आ ही जाता है। मटन पकने की ख़ुशबू या यूँ कहें कि एकाध सेर, लहसून प्याज़ और मसालों की ख़ुशबू भी उसमें घुलमिल जाती है।
वहॉं के शब्द और उन शब्दों का प्रयोग भी विरल था। जब भी जाते, हर बार एक नया ही शब्द सीखने को मिलता था जिसका अर्थ उसके सही मायनों से कोसों दूर - गैस, हड्डी, भोचर, बाय दी बे।
आपकी याददाश्त हर घटना, हर मंज़र का एक चित्र संजो कर रखती है। खुशी का ख़ाना अलग, दु:खी यादें अलग और ये चित्र अपने अपने ख़ाने में सुरक्षित, महफ़ूज़ रहते हैं। बाद में कितनी भी बार उस जगह पर घूम आइए, अलग मूड में भी तब भी वह चित्र शायद ही बदलती है। कभी किसी नौस्तैलजि्क शाम आप उन घटनाओं को याद करें तो वही सुरक्षित चित्र दिखाई देते हैं। खुशी वाले थोड़े और ख़ुशनुमा और दु:ख वाले थोड़े और उदास।
वहॉं बदलाव तो बहुत हो गया था। बहुत दिन बाद जाने का मौक़ा भी तो मिला था। इस बार जाकर देखा तो याददाश्त के ख़ाने की तस्वीर से सिर्फ ऑंगन ही मेल खाता मिला। न वो ओसरा था ना ही वहाँ के लोग। वो चारों तरफ के ऊँचे घर जैसे उस चित्र को मिटाने में लगे थे। बस भाग जाने का मन हुआ। हम उधर संघर्षरत थे ज़िंदगी की रेस में और इधर ईंट दर ईंट चित्र बदल रहा था। हीही, खीं खीं की उमर कब पीछे छूटी और कब हम बड़े हो गए पता भी न चला।