Sunday, July 14, 2019

स्कूल या दफ्तर

अलसाई ऑंखों को मलते
बासी नींद में लड़खड़ाते
उबासियों की नि:शब्द तान लगाते
अब जो होड़ में लग जाते हैं
पुरानी यादें जाती जैसे बिखर!
क्या बदला हमें ही है खबर
पहले जाते थे स्कूल,
अब दफ्तर!

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...