Sunday, June 03, 2018

दिन ढला, 
ओढ़े चादर काली
ढली शाम,
मन विचर रहा अब भी
कहॉं मिले विराम, आराम।

बहुत जोर 
आज मन भागा था
पैर जो दिखते 
तो कटे फटे 
घाव दिखते शायद!

सवाल बहुत थे आज 
कहॉं भाग रहे हैं
कोई हांक रहा है
या बस सरपट भाग रहे हैं?
किस कल के लिये
शूल चुन
शैया बुन रहे हैं?

उधेड़बुन भी है बहुत
रूक जाएँ
पलट जाएँ
या बदल लें राह?
दौड़ आधी और बची है
न कोई वाह
खतम सब चाह
थक कर चूर हो गए, आह!

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...