दिन ढला,
ओढ़े चादर काली
ढली शाम,
मन विचर रहा अब भी
कहॉं मिले विराम, आराम।
बहुत जोर
आज मन भागा था
पैर जो दिखते
तो कटे फटे
घाव दिखते शायद!
सवाल बहुत थे आज
कहॉं भाग रहे हैं
कोई हांक रहा है
या बस सरपट भाग रहे हैं?
किस कल के लिये
शूल चुन
शैया बुन रहे हैं?
उधेड़बुन भी है बहुत
रूक जाएँ
पलट जाएँ
या बदल लें राह?
दौड़ आधी और बची है
न कोई वाह
खतम सब चाह
थक कर चूर हो गए, आह!
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