Thursday, April 06, 2017

झिझक

ये जो झिझक सा आ जाता है बोलते बोलते
याद है मुझे बचपन में तुम कितनी साफ़ बातें करतीं थीं माँ !
बोझ बहुत है क्या - हर सोच, हर शब्द में
उस वक़्त कब तौला था तुमने शब्दों को माँ !

उलझ सी जाती हो किन ख़यालों में,
कभी ख़ामोशी, कभी बस एक मुस्कान
क्या मैं इतना बदल गया हूँ माँ !

यूँ लगता है कई किनारों से जैसे
छिप छिपाकर बच कर निकलती हो
हमारा रिश्ता क्या इतना संकरा हो गया है माँ !

No comments:

Post a Comment

चरित्र

कहीं छंदों का कहीं संगों का कहीं फूल बहार के खेलों का चट्टानों, झील समंदर का सुन्दर रंगीन उपवनों का ख़ुशबू बिखेरती सुगंध का, कभी रसीले पकवान...