"रेखाओं का खेल है मुक़द्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो"
वो रात कुछ अजीब थी - अजीब क्योंकि ऐसा कभी सोचा न था की इतनी हँसी ठिठोली वाली शाम एक सुरमयी सफर में तब्दील हो जाएगी।
हम उनके साथ टैक्सी का इंतज़ार कर रहे थे और गाडी के आने पर जैसे ही अंदर बैठे उपरोक्त ग़ज़ल के शब्द ने हमारे कानों को झंकृत किया और हमारे चेहरे पर एक मुस्कान बिछ गयी। घटाएं बहुत देर से उमड़ घुमड़ रही थी और शायद इसी इंतज़ार में थीं की कब हमारे सर के ऊपर एक छत आये और कब वो हम पर झपट पडें। छत कृत्रिम और गतिशील ही क्यों न हो घटाओं से रहा न गया और टप-टपाते हुए बूंदों की पूरी फ़ौज ने हमें घेर लिया।
गहन अँधेरे में सिर्फ टैक्सी की हेडलाइट, जिससे रास्ते से ज़्यादा वो बूँद दृष्टिगोचर हो रहे थे, ही हमारा सहारा थी। खुली सड़क हो, अँधेरा हो तो उनको वैसे ही डर लग जाता है और आज तो साथ में घनघोर बारिश भी थी - एक तो कोढ़ और उसमे खाज!
उस कृत्रिम छत के नीचे ३ में से २ लोंगो की तो यही सोच थी कि वाह क्या रोमांटिक शाम है, पर नहीं उनकी नहीं। वो तो डर के मारे काँप रहीं थीं - हालांकि बाद में जब भी ये किस्सा दोहराया जायेगा वो काँपना ठण्ड के मत्थे चढ़ेगा।
फिर वही हुआ जो ऐसे मौंको पर होता है - nostalgia (इस शब्द का गूगल ने हिंदी में अर्थ विषाद बताया है, लेकिन विषाद में जाने क्यों वो रोमांटिसिज़्म नहीं है जो nostalgia में है). हमने उनको बताया की करीब १५ साल पहले जब हम इस शहर में भैया के साथ रहने आये थे, तो ऐसे ही गाने बजाते हुए हमलोग लंच करते थे। ये सारे गाने मानो भैया के playlist से ही थे - जो हमारे celeron युक्त डेस्कटॉप पर winamp सॉफ्टवेयर पर बजते थे।
फिर उस सिंगल रूम की यादें बादलों के उमड़ घुमड़ के ही सामान हमारी आँखों के सामने नाचने लगे - वो एक कोने में कंप्यूटर टेबल, उसी के नीचे किताबें और उसी टेबल से लगा हुआ एक कार्टन जिसमे कपड़े, पुरानी किताबें और ऐसी बहुत सारी चीज़ें जो अमूमन ऐसे कोने में पड़े कार्टन में होते हैं। उसी के ऊपर हैंगर पर टंगे हुए नियमित दिन के कपड़े। फिर दूसरे छोर पर एक खिड़की जिसके नीचे हमारा तोशक और तकिये और साथ में एक ४'x४' का अटैच्ड गुसल - बस इतना सा ही था हमारा आशियाना।
रूम रहा होगा वो १२'x ७' का जिसमे कभी कभी हमें टेढ़ा होकर सोना पड़ता था अगर तोशक के सिराहने पर किताबों का पहाड़ जमा हो जाता। पर वो सोना खरे सोने से काम नहीं था और क्या ठाट वाली ज़िन्दगी थी वो - दौड़ भाग कर कॉलेज पहुंचे, सारे क्लासेज कीं और भाग कर वापस आकर पसर गए अपने तोशक पर। और नींद तो जैसे हमारी अभिन्न मित्र थी - खाना खाया तो नींद, cd लगाकर फिल्म देखना शुरू किया तो नींद, किताब खोली तो नींद। पर अब शायद वैसी गाढ़ी मित्रता नहीं रही , वो बेपरवाह सोना तो जैसे बंद ही हो गया है अब।
"फिर वही रात है, फिर वही रात है ख्वाब की " - जैसे गीत भी हमारा मन टटोल रहे थे। ये सारी बातें हमने शुरू की थी उनके ऐसे रात के सफर का डर दूर भगाने के लिए लेकिन सफर ख़त्म होते होते जैसे हमारा ही मन आर्द्र हो गया।
"आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे " - गुलज़ार साब के इस गीत के साथ हमारा सफर ख़तम होने वाला था और मेरे भी पाँव ज़मीं पर पड़ने से कतरा रहे थे। विचारों का साथ गति से छूटने वाला था - जब कोई ऐसी पुरानी यादें जेहन में आती हैं और आप गतिमय होते हैं तो जैसे यादों को भी पर लग जाते हैं , एक साथ कई पुरानी यादें होड़ लगाने लगती हैं। गति धीमी पड़ने लगी और विचार आख़िरकार थम गए।
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