Sunday, March 15, 2015

मुलाक़ात

बचपन बस्ता है उन गलियों में,
डरते हैं गुजरें उधर से
और पहचानने से इंकार ना वो कर दे।

कितने मोड़ पहले छूटी मासूमियत,
याद नहीं
कितने चौराहों पर बिका ईमान,
कहाँ ख्याल इसका।
कुछ खरीदा,
बेचा बहुत
करीने से जो रखा था
वो कहीं फ़ेंक आये
बदल गए इतना की खुद से ही सहम गए।

जब भी उठाने को झुके नीचे पड़ी चांदी
वहीँ पर ऊपर की जेब में पड़ा सोना गिरा आये।  

Saturday, March 07, 2015

क्वथनांक

रख दो की अभी मशाल उठाने का वक़्त नहीं आया है
बूँदें टपकी नहीं हैं अभी, बस सिसकियों का ही उफान आया है।

हर गली कूचे, हर चौक चौबारे से जब तक
जलने की बू न आ जाए
बेमुरव्वत नज़रों में जब तक
ग्लानि, आक्रोश, पीड़ा न छा जाए
जज़्बाती विचारों में जब तक
होश हौसला न आ जाए,
बुझे पड़े रहने दो मशालों को
क्रोध पलने दो तब तक।

इंक़लाब सैलाब नहीं
थपेड़े चट्टानों के मोहताज नहीं
उफनकर उबलोगे तो बस फैल जाओगे
उष्ण संजोकर धधको तब तक।

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...