नवीन, विशुद्ध, कंटकरहित
मर्यादा का पाठ पढ़ा चला
मोह-विमुक्त, ओजपूर्ण वो धुरंधर
नाम इतिहास में अंकित करने चला।
पार्थ-सुत वीर अभिमन्यु
एकाकी मन, एकाकी धुन से
खुद का मार्ग प्रशस्त करता चला।
सिंहनाद से उठते कर्कश शब्द
शस्त्रों के ठनाकों को,
हुंकारों में अपने विलीन करता चला।
ज्ञान संकीर्ण, हुनर प्रगाढ़
अनुभव विहीन
रक्त पिपासु धरा को
अपने लहू से तृप्त करने चला।
होता ये युग में एक बार
बिरले ही जन्मते हैं, बदलते हैं संसार
लघु जीवन अपरिमित सार,
विभक्ति होती इनकी अपरम्पार!
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