Sunday, May 24, 2009

मेह

नीर पिपासु धमनियों में
विद्युत का संचार हुआ,
धरती के वक्ष में जब
बारिश का प्रहार हुआ।

घटाओं के शोर में
हर्ष का प्रचार हुआ,
बूंदों के होड़ में
रंज का संहार हुआ।

सृष्टि जैसे धुल गयी
रंग नए भर गए,
प्रीत की ओट में
उष्ण भी लाचार हुआ।

मेह के बहाव में
दृश्य भी निखर गयी,
सुशुप्त चेतना हुई बेचैन
समग्र सीमाओं का विस्तार हुआ;
नीर रंजित बाण से
आर्द्र का प्रवाह हुआ॥

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...