बूँद व्यर्थ विकट विचार लिए था पड़ा,
क्यूँ है वो बांकियों सा?
रंग वही --
तरल बन जुड़ा सभी सा।
आप से विमुख --
वेगरहित मुरझाया मृदुल सा।
क्यूँ पहचान होती उसकी
सागर की लहरों से?
गहराई-ऊँचाई का ज्ञान उसे भी
पर क्यूँ नहीं माप वो उन्हें सका अकेला?
व्यथित क्यूँ है वो पड़ा उद्विग्न सा?
ज्ञान क्यूँ नहीं उसे अपने ही सामर्थ्य का?
लहर बनती उस जैसे बूँद से ही,
छिन्न-भिन्न हो बूँद अगर तो क्या अस्तित्व है लहर का?
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