Wednesday, December 27, 2006

सामर्थ्य

बूँद व्यर्थ विकट विचार लिए था पड़ा,
क्यूँ है वो बांकियों सा?

रंग वही --
तरल बन जुड़ा सभी सा।

आप से विमुख --
वेगरहित मुरझाया मृदुल सा।
क्यूँ पहचान होती उसकी
सागर की लहरों से?

गहराई-ऊँचाई का ज्ञान उसे भी
पर क्यूँ नहीं माप वो उन्हें सका अकेला?

व्यथित क्यूँ है वो पड़ा उद्विग्न सा?
ज्ञान क्यूँ नहीं उसे अपने ही सामर्थ्य का?

लहर बनती उस जैसे बूँद से ही,
छिन्न-भिन्न हो बूँद अगर तो क्या अस्तित्व है लहर का?

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...