Friday, August 23, 2024

बच गए

यह दिन बाकी दिनों के जैसा नहीं था। आज कार या बाइक की जगह हमने ऑफिस जाने के लिए कैब लेने का फ़ैसला लिया था। तबियत कुछ ख़राब थी और गला घोटने वाली खांसी, जान लेने के लिए आमादा थी। खांसी ऐसी कि लग रहा था कि अगर मुँह पर रुमाल रख कर खाँसें तो दो तीन बूँद खून के निकल आएँ। इसलिए हमने रुमाल को घर पर ही छोड़ दिया था।

अब हमारे टैक्सी चालक या तो अव्वल दर्जे के जेन्टलमैन थे नहीं तो घनघोर बेवकूफ! हमारा घर सिल्क बोर्ड से कुछ चार किलोमीटर की दूरी पर है। सुबह सात बजे निकलने पर बामुश्किल दस मिनट का सफर होता है। जनाब पहले तो कन्नड़ में भी कौन सा डायलेक्ट बोल रहे थे कि समझ से परे था। तिस पर से लुढ़कते हुए अपनी वैगन आर को बचते बचाते चल रहे थे।

हर उस गाड़ी जिसकी गति पर, कितनी बार हम दॉंत बिचकाते हुए और क़रीबन गरियाते हुए निकल जाते थे, ये जनाब या तो उनके पीछे नहीं तो समानांतर चल रहे थे। सिलिंडर से लदा हुआ एक छोटा ट्रक हमारे आगे चल रहा था, वही छोटा हाथी और हम उसकी हौसलाअफ़जाई के लिए ठीक उसके पीछे। और आगे पीछे स्कूल की पिली बसें। बस की पूरी बारात ही थी, जैसे कि किडनैपिंग का कोई सीन चल रहा हो। कछुए चाल का एक और ख़ामियाज़ा हम भुगत रहे थे - हर सडांध जैसे साथ ही बैठी थी। बू का स्पेक्ट्रम सुबह के अलाव (हाँ ऐसे भी लोग हैं जो प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का फ़ायदा नहीं उठा पाते हैं), से लेकर कचरे के ढेर तक का था। मन विषाक्त हो गया था एकदम!


हम अपनी क़िस्मत को रो रहे थे कि अगर एक हाथ से मुँह ढक कर (और खून होता तो उसको भी पोंछते हुए) हम अपनी बाइक से चले होते तो शायद ऑफिस पहुँच चुके होते। पर हाय रे होनी! तभी गुगल मैप की दिशा ज्ञान देने वाली मैडम की आवाज़ आई- कन्टिन्यू ऑन दिस रोड फ़ॉर थ्री किलोमीटर्स! हमने सोचा कि इस छोटे हाथी के पीछे तीन किलोमीटर तक इस गति में चले तो सिल्क बोर्ड की वो प्रचलित ट्रैफ़िक में फँसना तय है। हमने अपनी टूटी फूटी कन्नड़ा में अपने सारथी को समझाने का प्रयास किया।


मेरा इतना कहना था कि ऐसा लगा जैसे कैब वाले का मैजिक स्पेल टूट गया हो। जैसे ही छोटे हाथी ने रुकने का मन ही बनाया था कि ये फ़र्राटे से उसकी उल्टी तरफ़ से निकल लिए। अब गाड़ी हवा के उन कणों से गुफ़्तगू कर रही थी जो ऐसी गति पर ही दिख सकती हैं। पर इस प्रकाश की गति की ओर अग्रसर वाहन के चालक के लिए जैसे सब कुछ सामान्य था। इतना सामान्य कि बीच बीच में दरवाज़ा खोल कर वो अपनी तिलिस्मी अर्क के रस को हवा में भी लहरा रहे थे! हमारी साँस में घुली हुई जानलेवा खाँसी भी जैसे सवाल नहीं पूछ पा रही थी।


कितनी बार तो ऐसा लगा कि हम राहगीरों के उपर चढ़ कर निकल गए हों। तीन किलोमीटर का फ़ासला जो पहले सुदूर दिख रहा था, जैसे अब चुटकियों में ख़त्म होने वाला था। इस उठ कर गिरते और गिरकर उड़ती अवस्था में किसी तरह ऑफिस पहुँचे तो मन में शिवमंगल सिंह सुमन की कविता के ये शब्द याद आ गए - 


क्‍या हार में क्‍या जीत में

किंचित नहीं भयभीत मैं

संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...