इरफ़ान ख़ान नहीं रहे। ख़बर पचने में थोड़ी देर लगी । और एक बार जब पची तो जैसे ख़्यालों की एक लम्बी कतार बन गई।
लगा जैसे अभी उसी बेपरवाह अंदाज़ में एक आवाज़ आएगी -
“क्या सोच रहे हो भैया?”
घरघराती हुई आवाज़ और ऑंखें ऐसी कि एक बार देख लो तो जैसे एकदम अन्तर्मन में छप जाए।
लोग कहते हैं उनकी ऑंखें बोलती थीं लेकिन ऑंखें बंद कर सोचता हूँ तो उनके द्वारा निभाए कितने किरदार और उनके संवाद कानों में गूंजने लगते हैं। और ये वाला तो ख़ुद हमने ही कितनी बार बोलकर घटिया मिमिकरी का नमूना दिया है-
“बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में!”
मैंने इरफ़ान को एक बार सजीव देखा था, हावड़ा स्टेशन पर। हावड़ा स्टेशन तो वैसे भी हमेशा भरा रहता है पर उस रोज़ भीड़ कुछ अलग ही परवान पर थी। उस भीड़ को बौना करता हुआ उनका ऊँचा, लम्बा कद, तनी हुई रीढ़ और फिर बस ऑंखें!
वहॉं नेमसेक फिल्म की शूटिंग चल रही थी। उस वक्त हमारा फ़िल्मी ज्ञान बहुत ही सीमित था; मन:स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि फ़िल्मों की ओर रुझान होता। इंजीनियरिंग का पहला साल रहा होगा और हम सेमेस्टर ब्रेक में घर जा रहे थे।
वैसे उनके आसपास दो और लोग थे जिनकी ऑंखों के बारे में एकाध लेख लिखा जा सकता है। एक थीं फ़िल्म की निर्देशिका मीरा नायर - जिनकी ऑंखें ऐसा प्रतीत होती हैं कि जबरन किसी ने खींच कर बड़ी कर दी हैं और दूसरी थीं तबु!
इन तीनों में सबसे ख़ूबसूरत आँखें तो निस्संदेह तबु की थीं पर उसी रोज़ मेरे मनस्पटल पर इरफ़ान की ऑंखें छप गई।
असर ऐसा था कि नेमसेक दो बार देखी। एक सीन हर बार ऑंखें नम कर जातीं - जब इरफ़ान का किरदार अपने बेटे गोगोल को लेकर एक पथरीले तट के बिल्कुल छोर तक चला जाता है और पॉकेट टटोलते हुए कहता है कि कैमरा ही भूल गया; फिर गोगोल से कहता है कि तुम इस पल को याद रखना। इतनी सहज एक्टिंग है इरफ़ान की कि आपको खोया हुआ सा कोई अपना याद आ जाता है।
फिर लन्चबॉक्स का वो सीन जिसमें एक चिट्ठी के ज़रिए इरफ़ान अपनी दोस्त को बताते हैं कि कैसे ऑफिस निकलते वक्त, दुबारा अपने ही बाथरूम में घुसने पर वहाँ की गंध उन्हें अपने दादाजी की याद दिला जाती है। उस गंध को महसूस करने के बाद उनकी ऑंखें इस सीन में क्या भयंकर काम कर जाती हैं। इसी फिल्म में वहीं ऑंखें जब नाक पर सरके हुए चश्मे के पीछे से देखती हैं तो लगता है कि एक्टिंग की किताबों में कुछ और अध्याय जोड़ने पड़ेंगे।
अभी तो काम सर पर नाच रहा है। पर जैसे ही ख़बर सुनी, लगा जैसे कि सब फेंक फाक कर नेमसेक, हासिल, पान सिंह, मक़बूल, लन्चबॉक्स, हैदर बैक-टू-बैक देख लें। और देखेंगे तो ज़रूर। कुछ खटक सा रहा है, एक टीस भी है। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि कोई अपना जान पहचान वाला गुज़र गया हो जैसे।
क्या दद्दा! बहुत जोर भगे पर रेस बीच में ही छोड़ दिया!
लगा जैसे अभी उसी बेपरवाह अंदाज़ में एक आवाज़ आएगी -
“क्या सोच रहे हो भैया?”
घरघराती हुई आवाज़ और ऑंखें ऐसी कि एक बार देख लो तो जैसे एकदम अन्तर्मन में छप जाए।
लोग कहते हैं उनकी ऑंखें बोलती थीं लेकिन ऑंखें बंद कर सोचता हूँ तो उनके द्वारा निभाए कितने किरदार और उनके संवाद कानों में गूंजने लगते हैं। और ये वाला तो ख़ुद हमने ही कितनी बार बोलकर घटिया मिमिकरी का नमूना दिया है-
“बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में!”
मैंने इरफ़ान को एक बार सजीव देखा था, हावड़ा स्टेशन पर। हावड़ा स्टेशन तो वैसे भी हमेशा भरा रहता है पर उस रोज़ भीड़ कुछ अलग ही परवान पर थी। उस भीड़ को बौना करता हुआ उनका ऊँचा, लम्बा कद, तनी हुई रीढ़ और फिर बस ऑंखें!
वहॉं नेमसेक फिल्म की शूटिंग चल रही थी। उस वक्त हमारा फ़िल्मी ज्ञान बहुत ही सीमित था; मन:स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि फ़िल्मों की ओर रुझान होता। इंजीनियरिंग का पहला साल रहा होगा और हम सेमेस्टर ब्रेक में घर जा रहे थे।
वैसे उनके आसपास दो और लोग थे जिनकी ऑंखों के बारे में एकाध लेख लिखा जा सकता है। एक थीं फ़िल्म की निर्देशिका मीरा नायर - जिनकी ऑंखें ऐसा प्रतीत होती हैं कि जबरन किसी ने खींच कर बड़ी कर दी हैं और दूसरी थीं तबु!
इन तीनों में सबसे ख़ूबसूरत आँखें तो निस्संदेह तबु की थीं पर उसी रोज़ मेरे मनस्पटल पर इरफ़ान की ऑंखें छप गई।
असर ऐसा था कि नेमसेक दो बार देखी। एक सीन हर बार ऑंखें नम कर जातीं - जब इरफ़ान का किरदार अपने बेटे गोगोल को लेकर एक पथरीले तट के बिल्कुल छोर तक चला जाता है और पॉकेट टटोलते हुए कहता है कि कैमरा ही भूल गया; फिर गोगोल से कहता है कि तुम इस पल को याद रखना। इतनी सहज एक्टिंग है इरफ़ान की कि आपको खोया हुआ सा कोई अपना याद आ जाता है।
फिर लन्चबॉक्स का वो सीन जिसमें एक चिट्ठी के ज़रिए इरफ़ान अपनी दोस्त को बताते हैं कि कैसे ऑफिस निकलते वक्त, दुबारा अपने ही बाथरूम में घुसने पर वहाँ की गंध उन्हें अपने दादाजी की याद दिला जाती है। उस गंध को महसूस करने के बाद उनकी ऑंखें इस सीन में क्या भयंकर काम कर जाती हैं। इसी फिल्म में वहीं ऑंखें जब नाक पर सरके हुए चश्मे के पीछे से देखती हैं तो लगता है कि एक्टिंग की किताबों में कुछ और अध्याय जोड़ने पड़ेंगे।
अभी तो काम सर पर नाच रहा है। पर जैसे ही ख़बर सुनी, लगा जैसे कि सब फेंक फाक कर नेमसेक, हासिल, पान सिंह, मक़बूल, लन्चबॉक्स, हैदर बैक-टू-बैक देख लें। और देखेंगे तो ज़रूर। कुछ खटक सा रहा है, एक टीस भी है। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि कोई अपना जान पहचान वाला गुज़र गया हो जैसे।
क्या दद्दा! बहुत जोर भगे पर रेस बीच में ही छोड़ दिया!
उम्दा,उत्तम।
ReplyDeleteBhai Gazab
ReplyDelete“तुम इस पल को याद रखना।” दिल छू लेने वाली श्रद्धांजलि
ReplyDeleteAwesome bhai 👍
ReplyDelete