कल रात
हवा भीगती हुई उन बारिश की बूंदों में
भीगी धरा की बू लपेटे
झरोखों से -
बेझिझक, बेहिचक
अंदर चली आई।
कुछ जेहन की ताखों पर रखे
पिटारों को खोलती
कुछ चुनती, कुछ समेटती
फिर खिलखिलाती निकल पड़ी।
और ये जानिए कि क्या खूब थी ये अठखेली
निर्जीव से भाररहित हवा ने
कुछ यादों की धुंध में गुम, निशब्द ख़याल
कुछ अनछुए मोड़
और उन पिटारों में पड़े
छिटपुट अदृश्य सामानों का बोझ
हम पर डाल दिया
और खुद हवा हो गयी।
Monday, September 07, 2015
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चरित्र
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