Saturday, May 29, 2010

रोज़ाना

हाथ की नहीं
यूँ कहें की धड़कनों की दूरी है

छू जाती हैं
पर हवाओं को भी रुख़ बदलना होता है
करीबी अवरोध बन गयी हैं

इतने पास होते तो हम उनके भी न थे
शिक़वे होकर भी न हो सकते हैं

रोज़ मिल ही जाते हैं
कभी कुछ पूछते नहीं एक दूसरे से
शायद नियति है
सोच कर बस दम भर लेते हैं
अब तो सगी सी लगती है...बैंगलोर ट्रैफिक !

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...