हाथ की नहीं
यूँ कहें की धड़कनों की दूरी है
छू जाती हैं
पर हवाओं को भी रुख़ बदलना होता है
करीबी अवरोध बन गयी हैं
इतने पास होते तो हम उनके भी न थे
शिक़वे होकर भी न हो सकते हैं
रोज़ मिल ही जाते हैं
कभी कुछ पूछते नहीं एक दूसरे से
शायद नियति है
यूँ कहें की धड़कनों की दूरी है
छू जाती हैं
पर हवाओं को भी रुख़ बदलना होता है
करीबी अवरोध बन गयी हैं
इतने पास होते तो हम उनके भी न थे
शिक़वे होकर भी न हो सकते हैं
रोज़ मिल ही जाते हैं
कभी कुछ पूछते नहीं एक दूसरे से
शायद नियति है
सोच कर बस दम भर लेते हैं
अब तो सगी सी लगती है...बैंगलोर ट्रैफिक !
अब तो सगी सी लगती है...बैंगलोर ट्रैफिक !