Tuesday, July 07, 2009

हैफ कि हम अनदेखों में रह गए

हैफ कि हम अनदेखों में रह गए

कभी उधर जाने का दिल ही नही था

कभी कुछ दूर चलकर मुड़ गए।

वो देखते पर्वत हैं

और कहते की पर्वत है ही नहीं ।

हमने रुख किया उधर

कुछ दूर चढ़े और नजारों के कायल हो गए।

सोज़ कहीं, तो

कहीं साज़ की कमी रह गयी ।

कभी कोशिश की रस में बह गए

हैफ कि हम अनदेखों में रह गए!!!

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...