थकी हुई इन लाल आंखों में
मैं आशा की किरण देखता हूँ
कहीं विचारों का सैलाब
कहीं अनकहे शब्दों की कतार देखता हूँ
अनछुए सपनों को मुष्टिगत करने की चाह
तो कहीं और ऊंची उडान देखता हूँ
अश्रुपूर्ण इन लाल आंखों में
मैं उम्मीद की मोड़ देखता हूँ
दबी बिछड़ी इच्छाओं को -
उछल कर पकड़ने का जोश देखता हूँ
Tuesday, September 25, 2007
Subscribe to:
Posts (Atom)
दिन
दिन बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...
-
डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...
-
यह दिन बाकी दिनों के जैसा नहीं था। आज कार या बाइक की जगह हमने ऑफिस जाने के लिए कैब लेने का फ़ैसला लिया था। तबियत कुछ ख़राब थी और गला घोटने व...
-
थी जगह वही पर वीरानी लगती है। यादों के कोरों से निकालने पर पहचानी सी लगती है। वही रास्ता, वही चौक पर लोग बदले से लगते हैं इन मोड़ों पर, दुका...