Friday, May 04, 2007

जूठन

छिटके थे तूने अपनी तूलिका से रंग,
मैं सराबोर ना हो सका;

रंग तो थे उसमे कई सारे,
पर कुछ भी मुझ पर जम ना सका।

पाए छीटों से तो मैने सारे रंग,
पर दर्शनीय मैं कहाँ बन सका।

कृति तो तूने खूब बनाई,
मैं जूठन सा अनछुआ क्यूँ रह गया?

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...