यह रेल यात्रा है वियेना से प्राग के लिए। ये दोनों देश, ऑस्ट्रिया और चेक, इतने आस-पास हैं कि तीन चार घंटे का सफ़र काफ़ी है एक देश से दूसरे देश जाने में। उपर से शेन्गन देश तो विज़ा/इमिग्रेशन का कोई झंझट भी नहीं। इनको तो लगता है जैसे आतंक का मतलब ही नहीं मालूम और न ही कोई प्रत्यक्ष बंदोबस्त - जैसे, न कोई बैग चेकिंग न ही वो टीं-टीं करते मेटल डिटेक्टर दरवाज़े।
यही फ़रक है शायद चारों तरफ़ दुश्मन देश से घिरे रहने में जहाँ पाकिस्तान बेवजह परेशान करता है, चीन दबाना चाहता है और बांग्लादेश चुराना चाहता है। नेपाल और श्रीलंका तो अंदर से ही घुट रहें हैं।
“टिकट प्लीज़”, एक धीमी पर कड़क आवाज़ आई और इतनी देर के बाद रेल का कोई अधिकारी दिखा। टीटी का भी अलग अंदाज़, चारों तरफ़ किसी न किसी तकनीकी यंत्र से लैस। औपचारिकता पूरी होने के बाद जब ऐलान हुआ तब समझ में आया कि ये तो निजीकरण के चोंचले हैं। ऐलान इस बात की थी कि ट्रेन १० मिनट देर से चल रही थी। ये तो है कि यहाँ समय का बड़ा महत्त्व है, हमारे यहाँ तो जो समयनिष्ठ है वो तेजा कहलाता है - सब कुछ टाइम टू टाइम! पंक्चुआलिटी हमारे यहाँ सचमुच मज़ाक़ है!
कुछ दूर चलने पर बहुत बड़े खेत नज़र आए जिनमें पीले रंग की बालियों वाले पौधे लगे थे। यश चोपड़ा के फ़िल्मों की तरह, सरसों के खेत। वो बालियाँ इतनी गहरी पीली थीं कि जैसे वो रंग ख़ुद आपकी इंद्रियों को झकझोर रहा हो - “ये लो!”। ये फिरंग सरसों का क्या करेंगे ? एक तो हल्के रंग पर सरसों तेल पीलिया सा ही लगेगा और नाक कान के लिए भी ये उपयोगी नहीं क्योंकि तो ख़ुद ही ये अपनी दवाओं से सर्दी जमा लेते हैं। न ही इनके आधुनिक तकनीक वाले दरवाज़े चूँ-चाँ करते हैं, फिर याद आया कि इन देशों में मस्टर्ड सॉस का बड़ा प्रचलन है तो शायद सरसों ही हों!
हमारा वैगन (जर्मन भाषा में कोच को वैगन कहते हैं) इकॉनमी क्लास वाला है, मतलब हमारा वाला जेनरल क्लास। बैठने के लिए सीटें हैं और लोग आराम से एसी का मज़ा लेते हुए बैठे हुए भी हैं। लेकिन ऐसा लगता है जैसे सब लोग किसी मातम का हिस्सा हैं। कोई किसी से बात नहीं करता - सब अपने मोबाइल फोन, लैपटॉप या किताबों में चिपके हैं। हम भी झिझक के कारण अपने सहयात्री से बस हैलो के अलावा कुछ नहीं बोलते हैं। अपने जेनरल क्लास में तो अभी तक मैट्रीमोनी वाले लेवल तक बात पहुँच चुकी होती!
शायद अमीरी आपके शब्दों को सूखा देता है या क्या पता अमीर और अमीर होने के उधेड़बुन में अपने आप से ही बात करते रहते हैं।