Wednesday, October 02, 2024

दिन

दिन 

बीत रहे हैं

गुज़र रहे हैं

फिसल रहे हैं

खिसक रहे हैं

लुढ़क रहे हैं

नहीं रुक रहे हैं।


हम

गिन रहे हैं

जोड़ रहे हैं

जोह रहे हैं

खो रहे हैं

आस

अब भी लगा रहे हैं।

Friday, August 23, 2024

बच गए

यह दिन बाकी दिनों के जैसा नहीं था। आज कार या बाइक की जगह हमने ऑफिस जाने के लिए कैब लेने का फ़ैसला लिया था। तबियत कुछ ख़राब थी और गला घोटने वाली खांसी, जान लेने के लिए आमादा थी। खांसी ऐसी कि लग रहा था कि अगर मुँह पर रुमाल रख कर खाँसें तो दो तीन बूँद खून के निकल आएँ। इसलिए हमने रुमाल को घर पर ही छोड़ दिया था।

अब हमारे टैक्सी चालक या तो अव्वल दर्जे के जेन्टलमैन थे नहीं तो घनघोर बेवकूफ! हमारा घर सिल्क बोर्ड से कुछ चार किलोमीटर की दूरी पर है। सुबह सात बजे निकलने पर बामुश्किल दस मिनट का सफर होता है। जनाब पहले तो कन्नड़ में भी कौन सा डायलेक्ट बोल रहे थे कि समझ से परे था। तिस पर से लुढ़कते हुए अपनी वैगन आर को बचते बचाते चल रहे थे।

हर उस गाड़ी जिसकी गति पर, कितनी बार हम दॉंत बिचकाते हुए और क़रीबन गरियाते हुए निकल जाते थे, ये जनाब या तो उनके पीछे नहीं तो समानांतर चल रहे थे। सिलिंडर से लदा हुआ एक छोटा ट्रक हमारे आगे चल रहा था, वही छोटा हाथी और हम उसकी हौसलाअफ़जाई के लिए ठीक उसके पीछे। और आगे पीछे स्कूल की पिली बसें। बस की पूरी बारात ही थी, जैसे कि किडनैपिंग का कोई सीन चल रहा हो। कछुए चाल का एक और ख़ामियाज़ा हम भुगत रहे थे - हर सडांध जैसे साथ ही बैठी थी। बू का स्पेक्ट्रम सुबह के अलाव (हाँ ऐसे भी लोग हैं जो प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का फ़ायदा नहीं उठा पाते हैं), से लेकर कचरे के ढेर तक का था। मन विषाक्त हो गया था एकदम!


हम अपनी क़िस्मत को रो रहे थे कि अगर एक हाथ से मुँह ढक कर (और खून होता तो उसको भी पोंछते हुए) हम अपनी बाइक से चले होते तो शायद ऑफिस पहुँच चुके होते। पर हाय रे होनी! तभी गुगल मैप की दिशा ज्ञान देने वाली मैडम की आवाज़ आई- कन्टिन्यू ऑन दिस रोड फ़ॉर थ्री किलोमीटर्स! हमने सोचा कि इस छोटे हाथी के पीछे तीन किलोमीटर तक इस गति में चले तो सिल्क बोर्ड की वो प्रचलित ट्रैफ़िक में फँसना तय है। हमने अपनी टूटी फूटी कन्नड़ा में अपने सारथी को समझाने का प्रयास किया।


मेरा इतना कहना था कि ऐसा लगा जैसे कैब वाले का मैजिक स्पेल टूट गया हो। जैसे ही छोटे हाथी ने रुकने का मन ही बनाया था कि ये फ़र्राटे से उसकी उल्टी तरफ़ से निकल लिए। अब गाड़ी हवा के उन कणों से गुफ़्तगू कर रही थी जो ऐसी गति पर ही दिख सकती हैं। पर इस प्रकाश की गति की ओर अग्रसर वाहन के चालक के लिए जैसे सब कुछ सामान्य था। इतना सामान्य कि बीच बीच में दरवाज़ा खोल कर वो अपनी तिलिस्मी अर्क के रस को हवा में भी लहरा रहे थे! हमारी साँस में घुली हुई जानलेवा खाँसी भी जैसे सवाल नहीं पूछ पा रही थी।


कितनी बार तो ऐसा लगा कि हम राहगीरों के उपर चढ़ कर निकल गए हों। तीन किलोमीटर का फ़ासला जो पहले सुदूर दिख रहा था, जैसे अब चुटकियों में ख़त्म होने वाला था। इस उठ कर गिरते और गिरकर उड़ती अवस्था में किसी तरह ऑफिस पहुँचे तो मन में शिवमंगल सिंह सुमन की कविता के ये शब्द याद आ गए - 


क्‍या हार में क्‍या जीत में

किंचित नहीं भयभीत मैं

संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।

Sunday, June 16, 2024

थी जगह वही

थी जगह वही
पर वीरानी लगती है।
यादों के कोरों से निकालने पर
पहचानी सी लगती है।

वही रास्ता, वही चौक
पर लोग बदले से लगते हैं
इन मोड़ों पर, दुकानों पर लोग
अब अपने नहीं लगते हैं।


बदलाव ही जीवन है

पर हम कैसे बदल जाएँ 

जहां जुड़-तुड़कर बनें हम,

उस माहौल को कैसे भूल जाएँ!


जिन से थी हमारी पहचान

उन्हें खोते जा रहें हैं,

दिशाहीन धड़, कमज़ोर जड़

न इधर के न उधर के

जाने हम क्या होते जा रहे हैं!

Monday, March 18, 2024

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानकारी दी है। आत्मकथाओं से जिस तरह की सीख की अपेक्षा होती है उस में यह किताब खरी उतरती है; पढ़ने के लिए हम भी सुझाव देते हैं।

नाइट लिखते हैं कि अपनी जवानी में उन्होंने कई देशों की सैर की जिसमें से एक विशेष उल्लेख है ग्रीस के टेम्पल ऑफ एथेना/नाइकी की। अब उनकी कम्पनी के नाम के लिए प्रेरणा स्त्रोत कहाँ से आया, ये तो ज़ाहिर सी बात है। पर जिस तरह उन्होंने एक्रोपॉलिस की व्याख्या की है कि कैसे वहाँ खड़े होकर उन्हें ये अनुभूति हुई कि पाश्चात्य सभ्यता का जन्म उसी जगह से हुआ; कुछ महीने पहले हम भी उस स्थान पर खड़े थे - हमें तो वैसा कुछ महसूस नहीं हुआ था। हाँ देखकर उसकी भव्यता और महत्ता पर विस्मय ज़रूर हुआ था। शायद ये हमारा पूर्वी अहंकार रहा हो जिसने हमारे आँकलन की युक्ति पर पर्दा डाल दिया हो।

खैर आगे बढ़ते हुए कुछ एक चौथाई किताब पढ़ने के बाद हमारा ध्यान “बेकर्स डज़न” पर अटक गया। अब इसका अर्थ तो हम जानते ही थे, कई बार ख़ुद शो ऑफ़ के चक्कर में इस्तेमाल भी किया है, पर आज मन अटक गया इस शब्द की व्युत्पत्ति पर।

गूगल से जानकारी मिली कि मध्यकालीन इंग्लैंड में बेकर्स के लिए बड़े ही सख़्त नियम थे - बेईमानी संगीन जुर्म था और जुर्माना उतना ही भयानक। इससे बचने के लिए बेकर एक और कभी-कभी तो दो लोफ़ ज़्यादा पैक कर बेचते थे। ऐसा करते-करते, ये एक तरह से प्रथा ही बन गई और इस तरह से अंक तेरह के लिए एक उपनाम बन गया बेकर्स डज़न!

ये पढ़कर हमें इससे मिलती-जुलती एक और कहानी याद आ गई। कुछ तीस साल पहले हमारे बचपन की कहानी।

दूधवाले उन दिनों दूध वितरण के लिए, कनस्तरों के गुच्छों को अपनी मोटर साइकिल की पिछली सीट पर दाएँ-बाएँ बांध कर निकला करते थे। अमूमन ये मोटर साइकिल या तो राजदूत होती थी या बुलेट! बुलेट उन दिनों अलग ही ब्रैंड था और उस पर रॉयल टैग नहीं हुआ करता था और ना ही उसकी ज़रूरत थी। गिने चुने लोग ही चलाते थे और ख़ुद को बछिया के ताऊ से कम नहीं समझते थे।

हमारे यहाँ भी दूध के लिए क़रीब-क़रीब ऐसी ही व्यवस्था थी। और व्यवस्था जितनी पुरानी होती है रिश्ता उतना ही मज़बूत बनता जाता है। और चूँकि माँ को वो दीदी बुलाते थे तो हमारे लिए वो मामा हो गए। 

तीन भाइयों की टोली थी - कैलाश, शंकर और महेश। जी हाँ महादेव के ही अवतार! अक्सर कैलाश मामा ही आते थे। ख़ुशमिज़ाज से, मुस्कान चिपकाए हुए अपनी साइकिल पर दूध कैन टाँगे हुए। गेट पर से ही चिल्लाते हुए - “दीदी दूध!”


बाकी दो भाई कभी-कभी ही अवतरित होते थे। लेकिन उनमें ख़ासा फ़रक यही था कि वो काली बुलेट पर काले कपड़ों में ही आते थे। दूध दही खाया हुआ शरीर और बस अपने काम से काम। जब उनको दूध को एक कनस्तर से दूसरे में डालते देखते थे तो हमारे अबोध से मन में बड़ा ही माचो सा इमेज बनता था - कि बड़े होकर यही काम करना है! और साथ में फ़िल्मों और कहानियों में सुनी सुनाई बात वाली शंका भी उभरती थी कि ऐसे खुलेआम दूध में पानी कैसे मिला रहें हैं ये लोग! 

 

और हमें लगता है, लगता क्या है, शर्तिया यही बात है कि हमारे अचेतन मन ने उसी इमेज से प्रोत्साहित होकर हमें काली बुलेट लेने के लिए प्रेरित किया था।


तीनों ग्वाल बंधुओं में, भैरव के नाम के अलावा, एक और समानता थी - वही बेकर्स डज़न!


उनके पास माप के लिए क़रीब एक क्वार्टर लिटर का ग्लासनुमा बर्तन था जिसे स्थानीय भाषा में पौआ कहते हैं। अब ये उनका अपराध बोध था या उदारता कि वो छह पौआ नापने के बाद, हमारी डेगची में थोड़ा ज़्यादा दूध डाल देते थे। और अगर हमने माँग की तो करीब आधा पौआ अधिक दूध दे देते थे।


ये सब सोचते हुए कुछ और बातें याद आईं कि कैसे पहले लोग सब्ज़ी ख़रीदने के बाद एक गुच्छा मिर्च, धनिया पत्ता, कुछ नहीं तो निम्बू ही उठा लेते थे। उसे भी क्या बेकर्स डज़न कहना ठीक होगा। नहीं जिस तरह से बेझिझक ये लोग अतिरिक्त आइटम उठाते थे उसे शायद बायर्स धाक कहना सही होगा।


अब तो ऐसा है कि न हमने आज तक अपने दूध वाले को देखा है - मुँह अंधेरे ही बाहर रखे झोले में कोई दूध के पैकेट रख जाता है, पेमेंट औनलाइन हो जाती है - न ही ये पता है कि हर रोज़ जो प्लास्टिक के पैकेट उठाते हैं उसमें दूध है भी या कृत्रिम गोरस! 

Thursday, March 07, 2024

Prejudice

 
जानिए कि जो खूबसूरत है 

वही सशक्त है

जो सशक्त है 

वही खूबसूरत!

चारदीवारी के इस तरफ

अल्फा है, बेटा है, गामा तो कई हैं

उस तरफ दबती हसरतों से उपर उठती 

चाहें हैं, हौसला है,

और हॉं

बेटा और गामा की मॉं है!

तो चारदीवारी बनाने वालों

बस ये जानिए 

कि जो खूबसूरत है 

वही सशक्त है

जो सशक्त है 

वही खूबसूरत!

Saturday, February 17, 2024

कविता

कविताएँ अमर होती हैं -
युगों की व्याख्यान
दशकों की टोह लेती है।
कहीं हर्ष 
कहीं संघर्ष,
बिस्मिल कहीं,
पाश कहीं,
व्यग्र भीड़ को छंद देती है,

कविताएँ अमर होती हैं।


कभी विषाद
कभी आह्लाद;
कहीं बल
कहीं आस
शब्दों को धुन
धुनों को शब्द देती है;
कितने सपनों को पंख
कितनों को उड़ान देती है,
कविताएँ अमर होती हैं।

Monday, January 01, 2024

जुकाम

दिमाग़ के 

सारे पोर बंद हैं

न स्वाद है

न सुगंध है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।


ऑंखों में खुमारी 

टूटते बदन के

हर हिस्से में ख़म है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।


उठती सॉंसों में

विरक्ति,

उतरती में बलगम है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...