बीत रहे हैं
गुज़र रहे हैं
फिसल रहे हैं
खिसक रहे हैं
लुढ़क रहे हैं
नहीं रुक रहे हैं।
हम
गिन रहे हैं
जोड़ रहे हैं
जोह रहे हैं
खो रहे हैं
आस
अब भी लगा रहे हैं।
क्यों डरे है ज़िन्दगी में क्या होगा, कुछ न होगा तो तजुर्बा तो होगा।
बीत रहे हैं
गुज़र रहे हैं
फिसल रहे हैं
खिसक रहे हैं
लुढ़क रहे हैं
नहीं रुक रहे हैं।
हम
गिन रहे हैं
जोड़ रहे हैं
जोह रहे हैं
खो रहे हैं
आस
अब भी लगा रहे हैं।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
बदलाव ही जीवन है
पर हम कैसे बदल जाएँ
जहां जुड़-तुड़कर बनें हम,
उस माहौल को कैसे भूल जाएँ!
जिन से थी हमारी पहचान
उन्हें खोते जा रहें हैं,
दिशाहीन धड़, कमज़ोर जड़
न इधर के न उधर के
बाकी दो भाई कभी-कभी ही अवतरित होते थे। लेकिन उनमें ख़ासा फ़रक यही था कि वो काली बुलेट पर काले कपड़ों में ही आते थे। दूध दही खाया हुआ शरीर और बस अपने काम से काम। जब उनको दूध को एक कनस्तर से दूसरे में डालते देखते थे तो हमारे अबोध से मन में बड़ा ही माचो सा इमेज बनता था - कि बड़े होकर यही काम करना है! और साथ में फ़िल्मों और कहानियों में सुनी सुनाई बात वाली शंका भी उभरती थी कि ऐसे खुलेआम दूध में पानी कैसे मिला रहें हैं ये लोग!
और हमें लगता है, लगता क्या है, शर्तिया यही बात है कि हमारे अचेतन मन ने उसी इमेज से प्रोत्साहित होकर हमें काली बुलेट लेने के लिए प्रेरित किया था।
तीनों ग्वाल बंधुओं में, भैरव के नाम के अलावा, एक और समानता थी - वही बेकर्स डज़न!
उनके पास माप के लिए क़रीब एक क्वार्टर लिटर का ग्लासनुमा बर्तन था जिसे स्थानीय भाषा में पौआ कहते हैं। अब ये उनका अपराध बोध था या उदारता कि वो छह पौआ नापने के बाद, हमारी डेगची में थोड़ा ज़्यादा दूध डाल देते थे। और अगर हमने माँग की तो करीब आधा पौआ अधिक दूध दे देते थे।
ये सब सोचते हुए कुछ और बातें याद आईं कि कैसे पहले लोग सब्ज़ी ख़रीदने के बाद एक गुच्छा मिर्च, धनिया पत्ता, कुछ नहीं तो निम्बू ही उठा लेते थे। उसे भी क्या बेकर्स डज़न कहना ठीक होगा। नहीं जिस तरह से बेझिझक ये लोग अतिरिक्त आइटम उठाते थे उसे शायद बायर्स धाक कहना सही होगा।
वही सशक्त है
जो सशक्त है
वही खूबसूरत!
चारदीवारी के इस तरफ
अल्फा है, बेटा है, गामा तो कई हैं
उस तरफ दबती हसरतों से उपर उठती
चाहें हैं, हौसला है,
और हॉं
बेटा और गामा की मॉं है!
तो चारदीवारी बनाने वालों
बस ये जानिए
कि जो खूबसूरत है
वही सशक्त है
जो सशक्त है
वही खूबसूरत!
कविताएँ अमर होती हैं।
सारे पोर बंद हैं
न स्वाद है
न सुगंध है
ये जुकाम बड़ी बेरहम है।
ऑंखों में खुमारी
टूटते बदन के
हर हिस्से में ख़म है
ये जुकाम बड़ी बेरहम है।
उठती सॉंसों में
विरक्ति,
उतरती में बलगम है
ये जुकाम बड़ी बेरहम है।
दिन बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...