डॉक्टर लक्ष्मी कांत सहाय भागलपुर के बहुत ही नामी ई एंड टी स्पेशलिस्ट हैं। फ़ौज से सेवा निवृत्त होने के कारण उनकी इज्जत दुगुनी हो जाती थी। वैसे तो बड़ी पोस्ट ऑफिस के पास जहाँ पर उनका क्लिनिक था वहां से वैसी कोई वाइब्स नहीं आती थी। हाँ, पर अंदर जाने पर और उनसे मिलकर ज़रूर लग जाता था कि उनका इतना नाम क्यों है। कड़क अंदाज़ और चचा चौधरी की तरह मूछें उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देते थे। उसी कड़क अंदाज़ में उन्होंने मेरी सारी हवा निकाल दी थी जब हम उनसे परामर्श के लिए पहुंचे थे। पढ़ते रहिये, जानने के लिए की क्या हुआ था।
एन डी ए का रिटेन निकल जाने के बाद मेरे पास एस एस बी का आमंत्रण आया।और उसी दिन हम पहुंच गए साँतवे आसमान पर, महात्मा गाँधी पथ स्थित राजहंस होटल (भागलपुर स्टैण्डर्ड से वो सातवाँ आसमान ही माना जायेगा)। इस होटल के टॉप फ्लोर पर उस वक्त भागलपुर का बेहतरीन जिम था। और एन डी ए/एस एस बी की तैयारी के लिए सबसे ज़रूरी क्या है - निःसंदेह, सुडौल शरीर। ध्यान देने बात ये है कि हमने उस वक्त तक स्टैमिना का बस नाम सुना था; एस एस बी के लिए थोड़ा वो और ज़्यादा दिमाग के अलावा कुछ नहीं चाहिए। पर उस वक्त कौन हमें ये ज्ञान देता। दो साल पहले बोर्ड परीक्षा ख़त्म होते ही हम उस जिम के दर्शन करने गए थे और तब से आस लगाए हुए थे कि किस बहाने यहाँ दाखिला ले लें। और मौका आ ही गया था।
जिम में खूब जमकर मेहनत-कसरत के बाद जब दिखाने लायक डोले बन गए तो हमने सोचा अब बाकी की तैयारी भी कर ली जाये। थोड़ी छानबीन, पूछताछ करने पर एक करीबी रिश्तेदार का पता मिला जिन्होंने एस एस बी इंटरव्यू दिया था। उनका चयन नहीं हुआ था तो क्या हुआ, आख़िर असफलताएँ ही सफलताओं के आधार स्तम्भ होते हैं। जाकर उनसे मिले और उनकी हिदायत गाँठ बॉंध ली - अक्खड़ बन कर जाओ, और नहीं कैसे होगा, नहीं तो सोचना ही नहीं है। तो वहॉं से पूरे दस लाख वाट का टर्बो चार्ज लेकर हमने सोचा थोड़ी शारीरिक जॉंच भी करवा ही लें।
और इस तरह हमने डॉक्टर सहाय से मिलने का मन बना लिया। निश्चित दिन बन, सँवरकर पहुँच गए उनके बड़ी पोस्ट ऑफिस के पास वाली क्लीनिक पर। कम्पाउण्डर ने हमारा नाम पुकारा और हमने डॉक्टर साहब के केबिन में घुसते ही ऐलान कर दिया कि एस एस बी इंटरव्यू के लिए जाने से पहले आपसे मशविरा लेना था। हमें लगा एक्स आर्मी डॉक्टर के सामने अपना अक्खड़पना भी टेस्ट हो जाएगा। डॉक्टर साहब ने रुटीन चेक-अप के बाद एक किताब पकड़ा दिया। इस किताब में बहुत सारे रंगीन धब्बों के बीच अंक लिखे हुए थे - बाद में हमने जाना कि उस टेस्ट को इशीहारा टेस्ट कहते हैं। हमने भी धड़ल्ले से पन्ने पलटते हुए सारे अंक एक के बाद एक पढ़ दिए और दांत निपोरने लगे।
“बेटा तुम बेकार ही जा रहे हो”, इतना बोलकर डॉक्टर साहब ने उस इशीहारा टेस्ट वाली किताब को अपनी तरफ़ पलटा और फिर हमें दिखाते हुए बोले, “तुमने एक भी सही नहीं पढ़ा है, तुम्हें कलर ब्लाइंडनेस है।”
अब हमें तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं। ऐसा नहीं है कि उस बीमारी का नाम पहली बार सुना था। पर उस मनोदशा में डॉक्टर से ये सुनकर ऐसा लगा कि उन्होंने जैसे लिम्फोसरकोमा ऑफ दी इन्टेस्टाइन बोल दिया हो। वैसे उनका फ़िनिशिंग टच अभी बचा हुआ था।
“और तुम्हारी नाक तो टेढ़ी है, तुम्हें तो पहले ही छॉंट देंगे!”
अमुमन किसी के नाक पर टिप्पणी कर आप उसकी इज़्ज़त पर प्रहार करते हैं। कटी, छटी, टेढ़ी नाक बोलकर तो जैसे आप सब्जेक्ट को नंगा ही कर देते हैं। अक्खड़पन को वहीं ताक पर रख कर, अपने अपमान में पढ़े गए क़सीदे को समेटते हुए हम वहॉं से उठ चले। टर्बो चार्ज भी वहीं क्लिनिक में फुस्स बोल गया।
अपने डोलों के अचानक बढ़ते हुए बोझ में दबे, गहन चिंतन करते हुए हमें ये विचार कौंधा कि ये हमारी इज़्ज़त की द्योतक नाक, आख़िर टेढ़ी कब हुई होगी। हॉं वही एक कारण हो सकता है वरना इतनी सुडौल, खड़ी नाक का अचानक टेढ़ा हो जाना तो असम्भव ही है।
सौगत बनर्जी और हमारी कोई पुश्तैनी दुश्मनी नहीं थी। वैसे तो दोस्ती भी नहीं थी पर क्योंकि एक ही बेंच पर बैठते थे तो जान पहचान अच्छी थी। अब किसी दिन जाने ग्रह नक्षत्रों को क्या सूझा, उन्होंने हमारे बीच मन मुटाव करा दिया। कुल मिलाकर दो घूंसों का एक अति संक्षिप्त बाउट हुआ और दोनों बॉक्सर अपनी लाल पड़ी हुई नाक सहलाते हुए अपने अपने कॉर्नर में बैठ गए। अब ये मुक्केबाज़ी याद आई तो उसका दर्द कुछ तीन गुना होकर उस दिन खूब टीस मारता रहा। अब इतना सब कुछ “नाकारात्मक” होने के बाद तो नतीजा हमें पता ही था, फिर भी हम इंटरव्यू के लिए गए थे और वहॉं से उस टेढ़ी नाक को कटवा कर वापस लौट आए थे। हॉं ये बात अलग है कि एस एस बी में अक्षम होने में हमारी टेढ़ी नाक का कोई योगदान नहीं था।
Itni saralata ke saath itne gahan vishao ko chuna aapki USP hai Bikash !
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