पिछले महीने भूपिन्दर सिंह का देहांत हो गया। बड़ी बड़ी ऑंखों पे घने परदों सी पलकों वाले भूपिन्दर जिनको लोग प्यार से भूपि जी भी कहते थे।
बहुत ही यूनीक गहरी, अनुनासिक आवाज़ के मालिक भूपि जी सत्तर के दशक में मिडिल क्लास की आवाज़ बन गए थे- “एक अकेला इस शहर में” से लेकर “ज़िन्दगी सिगरेट का धुआँ”। शायद एक्सपेरिमेंटल फ़िल्मों के लिए उनकी ही आवाज़ की ज़रूरत थी।
अगर आप “टी वी एफ” के फ़ैन हैं तो आपने नोटिस किया ही होगा कि “परमानेन्ट रुममेट्स” में उनके एक गाने को क्या ज़बर्दस्त सेट किया गया है - “एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंने”। ये गाना धर्मेंद्र पर फ़िल्माया गया था और भूपिन्दर की आवाज़ क्या सटीक बैठती है उनपर। नए रूपांतरण में बैचलर्स पैड में एक लड़की का आना, वक़्त का थम जाना और भूपिन्दर की आवाज़ - फिर से वैसी ही सटीक। बेहतरीन लेखनी, अव्वल चित्रांकन और आवाज़, दो-तीन जेनेरेशन पुरानी पर जो दोनों दृश्यों में बिल्कुल बराबर असर करती है।
उसी फिल्म, किनारा, के २-३ और गाने जैसे “नाम गुम जाएगा”, “मीठे बोल बोले”, तो जैसे उनके लिए ही बने थे। पंचम ने भी भूपिन्दर की बाकी हुनर का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद आख़िरकार उनके गायिकी का भी बख़ूबी उपयोग किया।
भूपिन्दर के ही एक गाने ने हमें एक और नगीने से परिचय कराया - निदा फ़ाज़ली!
“कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”
“दम मारो दम” हो या “चुरा लिया है तुमने जो दिल को” का रोमांटिक गिटार, भूपिन्दर कई विधाओं में दक्ष थे।
“दिल ढूँढता है” में जितना जादू गुलज़ार के शब्दों का है, उतना ही योगदान भूपिन्दर की आवाज़ का है। “जाड़ों की नर्म धूप” वाले अंतरे में तो उनकी आवाज़ की गर्माहट तक को महसूस किया जा सकता है।
अस्सी के दशक में उनके ग़ज़लों ने भी ख़ूब धमाल मचाया और साथ ही साथ “आवाज़ दी है” या “किसी नजर को तेरा” ने जैसे एक हॉंटिंग मेमरी बना दी।
उनके बारे में कुछ लेख पढ़े तो ज्ञात हुआ कि वो हक़ीक़त फ़िल्म से शुरुआत करते हुए रफ़ी, तलत जैसे दिग्गजों के साथ गाना गा चुके हैं। और कई फ़िल्मों में अपने ही उपर गाते हुए फ़िल्माए भी गए हैं। पर उनकी आवाज़ चूँकि टिपिकल हिन्दी फ़िल्म हीरो को सूट नहीं करती थी इसलिए अमूमन उनको बैकग्राउंड सिचूएशन में ही इस्तेमाल किया जाता रहा।
सत्तर-अस्सी के दशक में जब एक्सपेरिमेंटल सिनेमा का दौर शुरू हुआ तो भूपिन्दर को एक नया स्टेज मिला।
फ़ारुख़ शेख, नसीरुद्दीन शाह, आमोल पालेकर के लिए उन्होंने कुछ यादगार गीत गाए। उससे पहले गुलज़ार ने अपनी फ़िल्मों के लिए भूपि जी का कुछ इस तरह इस्तेमाल किया कि वो गाने फ़िल्मी गीतों के लिए एक अलग ही आयाम बन गए।
“जब तारे ज़मीं पर…तारे और ज़मीं पर? ऑफ़ कोर्स” - ये इतना कैजु़अल वाला ऑफ़ कोर्स, जब से सुना था हमें भी बोलने का बहुत मन था। और फिर हमने ट्विटरपर पढ़ा कि बहुत सारे लोग इस “ऑफ़ कोर्स” के कायल थे।
और एक कहानी तो हम हर बार दोहराते हैं कि कैसे हमें एक गाने का सिर्फ़ एक शब्द याद था और उससे डी ने पूरा गाना ढूँढ लिया था। निस्संदेह डी के गाने का टेस्ट और पहचान ज़बरदस्त है पर इस बार ज़्यादा श्रेय हम देंगे भूपि जी की अंदाज़-ए-गायकी को और एक आना हमारी मिमिक्री को।
भूपि जी के ही गाए हुए शब्द उनके लिए उपयुक्त बैठते हैं -
“नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे”