बिहार के मिडिल क्लास परिवारों में पढ़ाई पर हमेशा से बहुत ज़ोर दिया जाता रहा है। फलाँ का लडका नेशनल टॉपर था; फलॉं के लड़के ने आई आई टी में रैंक पाया। दिन भर आपको ऐसी ही होनहारों के किस्से सुनने को मिलते हैं। अब ज़ोर पढ़ाई पर होती है या रिज़ल्ट पर ये विवादास्पद है।
हमारा वक़्त कुछ वैसा ही था, लालू राज में राज्य से बाहर नहीं निकल पाए तो सुनहरे अक्षरों में आपके ललाट पर लूज़र अंकित हो जाता था। फिर बिहार में बहार, नितिशे कुमार आए; बदला कुछ नहीं, हॉं नॉनिहालों को उनकी हर असफलता, जीवन-मृत्यु सदृश संघर्ष, बताई जाने लगी।
“आप विश्वजीत के भाई हैं न?”
“यस मैम!”
“अच्छा, लेकिन अपने भाई जैसा बनिए। पढ़ाई पर ध्यान दीजिए।”
मिसेज़ उषा नारायण के साथ उपरोक्त संवाद क्लास सिक्स की है और हमें हमारा लक्ष्य उस वक्त ही थोप दिया गया था। अब हमारे अग्रज ने बेंचमार्क भी तो वैसा बना रखा था कि लोग हमसे वर्ज़न टू की उम्मीद लगाए बैठे थे। वैसे हमने कोई कसर नहीं छोड़ी थी यह स्पष्ट कर देने में कि बेहतर वर्ज़न टू बस सॉफ्टवेयर में ही होता है, आम ज़िंदगी में ऐसी आशाएँ बस कुंठा का ही कारण बनती हैं। लेकिन हमारे टीचरों को कौन बताए ये सब और कौन बताए कि तुलना, हीन भावना की जननी है। अगर हर कोई एक समान होता तो नरेन्द्रदत्त सत्य की खोज में क्यों ही भटकते और विवेकानंद तो कदापि न बन पाते।
“आपका बड़ा भाई है न, क्या नाम है; ख़ैर! वैसा दिमाग़ नहीं है आपका। और मेहनत करिये, खेलने कूदने से नहीं होगा”, हमारे मैथ्सटीचर, जावेद सर ने भी अपना जजमेंट सुना दिया था।
क्लास एट तक आते आते हमें ज्ञात हो गया था कि विरासत में हमें धन मिले न मिले तोहमत ज़रूर मिलती रहेगी। अब जितनी रुचि और जितना दिमाग, उतना ही परिणाम तो लाज़मी है।
वैसे तो आए दिन कुछ न कुछ होता था जिसे तुलनात्मक दृष्टि से परखा जाता था। पर हद तो तब हो गई जब एक दिन हमें पिछले बेंच पर खड़ा कर भैया को बुला लिया गया। मूर्ति दर्शन करवाने के बाद (अब इतनी बेइज़्ज़ती हो रही थी तो हम तो शर्म से मूर्ति ही बन गए थे) मिस अर्पिता ने कुछ ऐसा कहा कि बात खटक गई - “बहुत नाम रौशन कर रहा है”। सिसकियाँ भी आई थीं उस दिन पर फिर थोड़ी नोक-झोंक, कुछ उस परिप्रेक्ष्य से क्लास का दर्शन और फिर हाइड्रॉलिक पंप पर सह-मूर्ति के साथ डिस्कशन - इन सब ने मन बहाल कर दिया।
उस वक्त तक हमने रॉबिन विलियम्स की ‘डेड पोएट्स सोसाइटी’ नहीं देखी थी और वैसे भी उस वक्त अंग्रेज़ी फ़िल्मों का ज्ञान कहॉं था! पर अब, जब भी उस फिल्म को देखते हैं और जब उसमें राॉबिन विलियम्स का किरदार अपने छात्रों को बेंच पर चढ़ कर नए परिप्रेक्ष्य की बात कहता है, तो हमें अपना वो दिन याद आ जाता है। ये बात अलग है कि हमारे किस्से में कैप्टन भी हम, सेलर भी हम। ‘ओ कैप्टन माय कैप्टन’ की धुन भी हम, किरदार भी हम और बुलंद होती ख़ुदी भी हम।
हंसते, खेलते और ऐसे कितने ही उलाहना भरे दिनों को पीछे छोड़ते, आख़िरकार बोर्ड परीक्षा भी ख़त्म हो गई। अपने ही स्कूल में ग्याहरवीं क्लास में एडमिशन भी मिल गया। जी हॉं ये बड़ी उपलब्धि है, कितनों को डिसीप्लिन और जाने क्या क्या बहाने सुनाकर एडमिशन नहीं दिया गया था। हो सकता है ये भी प्रशस्त की हुई राह पर चलने का नतीजा हो।
दूसरे या तीसरे दिन प्रोफ़ेसर बी बी सहाय हमें फ़िज़िक्स पढ़ाने आए। पढ़ाने क्या आए मोनोलॉग दागते हुए सौ पेज तक का सारांश बताकर निकल लिए। दस दिन के बाद (या कम से कम हमको तो ऐसा ही लगा) एक टेस्ट भी हुआ। और उस टेस्ट की उत्तर पत्रिका जब बंट रही थी तो सर ने हमें बुलाने से पहले हमारी तरफ देखा और ऐलान किया - “अरे! विश्वजीत के भाई हो जी? ये लड़का निकालेगा आईआई टी! दोनों भाई बहुत तेज है...”! बोलते बोलते उनकी नज़र पड़ी हमारे आन्सर शीट पर, दो स्वर्णिम अंडे वहॉं से दॉंत बिचका रहे थे।अब हम तो वैसे ही ऐसी परिस्थितियों से कितनी बार गुजरकर थेथर हो गए थे पर शायद सर के लिए पहली बार था, सो वो झेंप गए।
कहते हैं कि जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनना होता है। और अगर आपको सुगम रास्ते मिलते जाएं तो क्या कहना! हाँ ये बात भी है कि वैसे रास्तों से गुज़रकर, सफ़र यादगार नहीं बन पाता। जब तक फिसले नहीं, गिरे नहीं, घुटने, कोहनी नहीं छिले तो सफ़र कहॉं! वैसे रास्ता तो हमारा सुगम ही था बस ये मील के पत्थर हमारे टीचरों ने (ज्ञात हो कि वे अवरोध कभी नहीं बने) बात बात पर चेता कर उसे यादगार भी बना ही दिया।